Tuesday, March 29, 2016

70. सामाजिक सुरक्षाः अपने ही क़ानून मरोड़ती सरकार, BBC Hindi, 19 November, 2013.


सामाजिक सुरक्षाः अपने ही क़ानून मरोड़ती सरकार
BBC Hindi, 
19 November, 2013.


सामाजिक सुरक्षाः अपने ही क़ानून मरोड़ती सरकार
रीतिका खेड़ा
अर्थशास्त्री, बीबीसी हिन्दी डॉट कॉम के लिए
  • 23 नवंबर 2013
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यूपीए सरकार के पिछले 10 साल सामाजिक नीतियों के लिहाज़ से काफ़ी असमंजस वाले रहे हैं.
इस दौरान सार्वजनिक मुद्दों से संबंधित कई क़ानून लागू हुए. इनमें शिक्षा, रोज़गार, खाद्य सुरक्षा, जंगल-ज़मीन पर अधिकार शामिल हैं.
हालांकि इसमें सूचना का अधिकार वह क़ानून है, जो धीरे-धीरे पारदर्शिता और जवाबदेही का माहौल पैदा कर रहा है. यही वजह है कि इससे लोगों, उनके प्रतिनिधियों और अधिकारियों के बीच 'सत्ता' का संतुलन बदल रहा है.
आश्चर्य की बात यह है कि जिस सरकार ने ये क़ानून बनाए हैं, वही अब इन्हें तोड़-मरोड़कर लागू कर रही है.
यहां तक कि कभी-कभी सरकार ख़ुद ही जान-बूझकर टांग अड़ाती नज़र आती है. एक ओर, ग्रामीण परिवारों को साल में 100 दिन के काम की गारंटी देने वाले मनरेगा क़ानून के ज़रिए ग़रीबों के लिए महत्वपूर्ण हक़ पैदा किया. साल 2009 के चुनावों में इसको कांग्रेस को फिर से सत्ता में लाने का श्रेय भी मिला.
लेकिन देखा जाए तो यूपीए की दूसरी पारी में इस क़ानून के साथ सौतेला व्यवहार हुआ. मनरेगा के बजट में भारी गिरावट आई. न्यूनतम काम के दिनों में कमी की गई और मज़दूरी भुगतान में छह-छह महीनों की देरी कोई नई बात नहीं रही.
सफलता का संकेत
इसके बावजूद सरकार इस गंभीर स्थिति को अपनी सफलता का संकेत बताना चाहती है.
उसके नज़रिए में जीडीपी का गिरना, मनरेगा के तहत काम की मांग गिरने की वजह से है. जो इसकी ज़रूरत न रहने का संकेत भी है.

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यूपीए 2 में मनरेगा के बजट में भारी गिरावट आई है.
रिपोर्ट के अनुसार स्थिति का यह आंकलन गलत है. 10 राज्यों के सर्वेक्षण में 77 फ़ीसदी ने मनरेगा में 100 दिन के रोज़गार की मांग की, जबकि केवल तीन फ़ीसदी को रोज़गार मिला.
जबकि काम का अभाव, भुगतान में देरी जैसे असल मुद्दों पर ग़ौर करने के बजाय, दिल्ली में मनरेगा के लिए पता नहीं क्या-क्या ख़याली पुलाव पकाए जा रहे हैं- इनमें 'आधार' से जोड़ना, इलेक्ट्रॉनिक मस्टर रोल, देरी से भुगतान के लिए 'ऑटोमेटिक' मुआवज़ा शामिल हैं.
ऐसे में इस सौतेले व्यवहार को कैसे समझा जाए? इसका एक तरीक़ा यह है- सरकार का असली चरित्र व्यवसाय उन्मुख रहा है और वह अपने इस चरित्र और सार्वजनिक मुद्दों के बीच संतुलन बनाए रखने की कोशिश कर रही है.
संतुलन लाने का एक तरीक़ा यह है कि सरकार सामाजिक सुरक्षा के बजट में निजी पार्टियों के लिए जगह बनाए. जैसे-जैसे सरकार का सामाजिक सुरक्षा का बजट बढ़ा है, वैसे-वैसे निजी पार्टियों का अपने हिस्से के लिए शोर भी बढ़ा है.
संतुलन बनाने की कोशिश
इसे इन दो उदाहरणों के ज़रिए देखा जा सकता है- मनरेगा को आधार से जोड़ने की होड़, इस संतुलन को बनाने की कोशिश को दर्शाता है.
जिस खुशी से उद्योग जगत और सरकार ने 'आधार' को अपनाया है, वह काफ़ी हद तक अन्य व्यावहारिक और कम दाम वाली तकनीकों को नकारते हुए किया गया है.

जिस 'आधार' को जनता में एकसामाजिक हस्तक्षेप के रूप में बेचा जा रहा है, उसके लिए उद्योग जगत में भी बिगुल बज रहा है.
सीएलएसए की मई 2010 की रिपोर्ट में उसे 20 अरब अमरीकी डॉलर के बाज़ार के रूप में देखा जा रहा है.
इसी तरह, साल 2008 में 'बिस्कुट निर्माता संगठन' ने कोशिश की कि सरकार की 'मिड डे मील' योजना में पके भोजन की जगह फोर्टिफाइड बिस्कुट दिए जाएं. हालांकि, उसकी कोशिश नाकाम रही.
केंद्र की मिड-डे मील स्कीम का बजट 13,000 करोड़ रुपए है और एक अनुमान के अनुसार भारत में बिस्कुट इंडस्ट्री का बाज़ार केवल 4,800 करोड़ रुपए है. पहली नज़र में लगेगा कि इस प्रस्ताव में ख़राबी क्या है? दोनों के लिए ही फ़ायदे का सौदा है-कुपोषित बच्चों के लिए भोजन और कंपनियों के लिए मुनाफ़ा.
जवाबदेही पर चोट
मगर ग़ौर से देखने से कई मुद्दे सामने आते हैं. जैसे यह व्यवस्था जवाबदेही पर चोट पहुंचाती है.
जब खाना सबके सामने पकता है, तो देखरेख करना आसान होता है. लेकिन दिल्ली जैसी जगह में, जहाँ एक केंद्रीय रसोई में खाना पकाकर सभी स्कूलों में पहुंचाया जाता है, शिक्षकों का कहना है कि उन्हें भी नहीं समझ आता कि किस से शिकायत की जाए?

हालांकि, एक उम्मीद की किरण भी है. सामाजिक सुरक्षा के एक वैकल्पिक ढाँचे की तस्वीर तैयार हो रही है.
वहीं, पिछले कुछ साल में सार्वजनिक मुद्दों के लिए जगह कुछ हद तक बढ़ी भी है. इसका एक संकेत यह है कि दोनों मुख्य पार्टियों में इन मुद्दों को लेकर एक होड़ मची है.
इसका एक नमूना खाद्य सुरक्षा कानून पर हुई बहस में सामने आया. मुख्य विपक्षी पार्टी ने बार-बार लोगों को छत्तीसगढ़ के खाद्य सुरक्षा कानून का उदहारण देते हुए कहा कि सरकार का मसौदा कमज़ोर है, अधूरा है.
सार्वजनिक मुद्दे
दोनों ही मुख्य दलों के लिए सार्वजनिक मुद्दे पहले चुनावी मुद्दे हैं. उसके बाद उनके ख़ुद के मुद्दे हैं. फिर भी यह होड़ उम्मीद ज़रूर जगाती है.
इस होड़ को पैदा करने में पिछले 10 सालों में लागू हुए शिक्षा, रोज़गार, खाद्य सुरक्षा आदि क़ानूनों का भी हाथ है. जहाँ इन्हें लगन से लागू किया गया हैं, वहाँ इनका असर दिखता है.
कछुए की चाल से ही सही, सार्वजनिक मुद्दे आगे ज़रूर बढ़े हैं. आगे चलते हुए, लोगों को ताक़तवर कंपनियों का सामना करना होगा.
इनकी ताक़त तकनीकी तंत्र के रूप में सामने आ रही है. एक भ्रम पैदा किया जा रहा है कि तकनीकी तंत्र हमारे लोकतंत्र की कमज़ोरियों का सही और एकमात्र इलाज है. लोकतंत्र को तकनीकी तंत्र से बचाना आज एक बड़ी चुनौती है.
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