Tuesday, March 29, 2016

97. आधार: ज़िंदगी में तांकझांक का तर्क कितना सही?, BBC Hindi, 17 August, 2015.


आधार: ज़िंदगी में तांकझांक का तर्क कितना सही?
BBC Hindi, 
17 August, 2015.


नकद हस्तांतरण से क्या हो पाएगी खाद्य सुरक्षा


रीतिका खेड़ा

Updated 17:19 रविवार, 26 अप्रैल 2015
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सरकार ने भारतीय खाद्य निगम को प्रभावी रूप से चलाने के लिए शांता कुमार कमेटी का गठन किया। कमेटी ने साथ में खाद्य सुरक्षा कानून पर भी सुझाव दिए, जो न सिर्फ उसके कार्यक्षेत्र से बाहर है, बल्कि ये सुझाव आंकड़ों के गलत विश्लेषण के सहारे दिए गए हैं। कमेटी ने सार्वजनिक वितरण प्रणाली (पीडीएस) से सस्ता अनाज देने के बजाय नकद हस्तांतरण (कैश ट्रांसफर) का सुझाव दिया है। इसको उचित ठहराने के लिए कहा गया है कि पीडीएस में लंबे समय से चल रहे भ्रष्टाचार की समस्या में कोई सुधार नहीं हो रहा। जैसे कि, बिहार में लगभग 25 प्रतिशत अनाज की चोरी होती है, पर कमेटी के दोषपूर्ण आकलन में इसे 68 प्रतिशत बताया गया है। पिछले दशक में कई राज्यों ने पीडीएस को सुधारने के लिए जोरों से काम किया है। इससे छत्तीसगढ़ में चोरी की मात्रा 50 प्रतिशत से घटकर 10 प्रतिशत ही रह गई है। बिहार, ओडिशा जैसे राज्यों में भी भ्रष्टाचार घटा है। हिमाचल और दक्षिण के राज्यों में तो पहले से ही स्थिति ठीक थी। वहां पीडीएस की दुकानों में दाल और खाद्य तेल भी दिए जाते हैं।

लेकिन राज्यों के इन प्रयासों से अछूते, ग्रामीण क्षेत्रों की वास्तविकताओं से अपरिचित, सरकारी गल्ले पर आधारित लोगों की जरूरतों से अनजान, दिल्ली में बैठे आर्थिक और अन्य विशेषज्ञों ने कैश ट्रांसफर को ऐसी जादुई छड़ी के रूप में प्रस्तुत किया, जिससे भ्रष्टाचार और खाद्य असुरक्षा से निपटारा मिल सकेगा।

इस सुझाव में दम है या नहीं, इसे समझने के लिए हमने 2011 में नौ राज्यों के 1,500 ग्रामीण राशन कार्डधारियों का सर्वे किया और उनसे पूछा कि अनाज और नकद में से वे किसे पसंद करेंगे और क्यों। इनमें से दो-तिहाई ने अनाज पाना पसंद किया।

पैसा होने पर भी अनाज की चिंता क्यों थी उन्हें? ग्रामीण क्षेत्रों में बाजार व्यवस्था तो कमजोर है ही, ग्रामीणों की दूसरी चिंता महंगाई से जुड़ी हुई थी। अनाज के दाम स्थिर नहीं रहते। जब महंगाई बढ़ेगी, तो क्या सरकार पैसा बढ़ाएगी? क्या सरकार के पास कीमतों की पर्याप्त जानकारी रहेगी? नकद राशि महंगाई के हिसाब से क्या तुरंत बढ़ेगी? यदि स्थानीय दुकानदार मुनाफा कमाने की नीयत से, जान-बूझकर कमी पैदा करें या कीमतें बढ़ाएं, तो सरकार कुछ करेगी या कर पाएगी? एक उत्तरदाता ने कहा, 'हमें पता है सरकार पैसे तभी बढ़ाएगी, जब चुनाव होंगे, उसके अलावा नहीं बढ़ाएगी!'

लोगों के लिए नकदी आकर्षक विकल्प इसलिए भी नहीं थी, क्योंकि बैंक खाता हो, तो भी न सिर्फ बैंक और पोस्ट ऑफिस दूर है,बल्कि बाजार भी हमेशा पास नहीं होते। आने-जाने के साधन कम हैं, खर्च अलग से होगा, समय की बर्बादी, बैंकों में भीड़, दुर्व्यवहार आदि। राशन की जगह पर पैसा देने से एक और दिक्कत आ सकती है। घर में नकद आने पर खर्च पर सबकी अलग राय हो सकती है, जिससे तनाव पैदा हो सकता है।

छत्तीसगढ़ में किसी ने कहा कि आज अनाज की खरीद, भंडारण, ट्रांसपोर्ट, सब सरकार की जिम्मेदारी है। अगर पैसा दिया गया, तो यह सब तनाव वाले काम और खर्च गरीबों के माथे मढ़ दिए जाएंगे। उनके असुरक्षित जीवन में और अनिश्चितता पैदा करेंगे। पैसा नहीं आया, तो बैंक हाथ खड़े कर देंगे। ये सब केवल डराने की बातें नही हैं, किसी विधवा पेंशनधारी या अन्य कैश ट्रांसफर लाभार्थी के रोज के अनुभव हैं।

कुछ अर्थशास्त्री कहते हैं कि यह सब बदलाव से पैदा घबराहट को दर्शाता है और इस विरोध को जायज कारण नहीं माना जा सकता। पर बदलाव सभी के लिए, शहरी-शिक्षितों के लिए भी, असुविधा पैदा करता है। आजकल एलपीजी सब्सिडी के लिए जो प्रक्रिया चली है, उससे लोगों को परेशानी की काफी खबरें आ रही हैं। जब तक नई व्यवस्था पूरी तरह से नहीं बैठ जाती, उस दौरान की समस्याओं से झूझने की क्षमता गरीबों में शायद न हो। एक महीने की एलपीजी सब्सीडी जमा न होने पर सिलेंडर खरीद पाने की क्षमता शायद सब में न हो।

केरोसीन के लिए ऐसा ही प्रयोग अलवर के कोटकासिम में पिछली सरकार ने किया। हुआ यह कि लोगों के खाते खुले नहीं, जिनके खुले थे, उसमें भी कइयों में पैसा नहीं आया, लोगों ने मजबूरन केरोसीन खरीदना छोड़ दिया। केरोसीन खरीद में 80 प्रतिशत गिरावट आई। सरकार ने इसका प्रचार यह किया कि 80 प्रतिशत चोरी हो रही थी, वह कैश ट्रांसफर करने से रुक गई!

राशन वितरण प्रणाली में भ्रष्टाचार है, पर कई राज्यों के प्रयासों से (जैसे कंप्यूटरीकरण, कमीशन बढ़ाने, गांव तक अनाज पहुंचाने,ताकि रास्ते में कालाबाजारी रुक सके) सुधार हुआ है। वैसे भी भ्रष्टाचार का सही जवाब है उससे लड़ना, न कि मुंह मोड़कर कहना कि योजना बंद कर दी जाए।

खाद्य सुरक्षा कानून के तहत देश की दो-तिहाई जनसंख्या को लाभ होगा, 14 करोड़ बच्चों को मध्याह्न भोजन मिलेगा, आंगनवाड़ी के बच्चों को पोषण और स्वास्थ्य सुविधाएं पहुंचायी जा सकेंगी। कानून में मातृत्व लाभ का भी प्रावधान है। इस सब की कीमत? देश के जीडीपी का लगभग एक प्रतिशत। वहीं ज्यादातर अमीरों को लाभान्वित करनेवाली कर माफी का देश के जीडीपी में हिस्सा चार प्रतिशत है। जिस देश की सबसे बड़ी संपत्ति उसके लोग हैं, क्या वहां लोगों पर इतना भी खर्च नहीं कर सकते?

सामाजिक कार्यकर्ता और आईआईटी दिल्ली से संबद्ध